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Chapter 1, Shloka 20,21,22,23 / अध्याय १ - श्लोक 20,21,22,23 Sadhak Sanjivani / साधक संजीवनी

    • Budismo

अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
हे महीपते! धृतराष्ट्र! अब शस्त्रों के चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्य को धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थितरूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ये वचन बोले।
व्याख्या--'अथ'-- इस पदका तात्पर्य है कि अब सञ्जय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप 'भगवद्गीता' का आरम्भ करते हैं। अठारहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्लोकमें आये 'इति' पदसे यह संवाद समाप्त होता है। ऐसे ही भगवद्गीताके उपदेशका आरम्भ उसके दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे होता है और अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें यह उपदेश समाप्त होता है।
'प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते'-- यद्यपि पितामह भीष्मने युद्धारम्भकी घोषणाके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत केवल दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव और पाण्डव-सेनाने उसको युद्धारम्भकी घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र हाथमें उठाकर तैयार हो गये। इस तरह सेनाको शस्त्र उठाये देखकर वीरतामें भरकर अर्जुनने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथमें उठा लिया।
 'व्यवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् दृष्ट्वा'-- इन पदोंसे सञ्जय-का तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखा, तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्यके पास गया। परन्तु जब अर्जुनने कौरवोंकी सेनाको देखा, तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुषपर ही गया-- 'धनुरुद्यम्य'। इससे मालूम होता है दुर्योधनके भीतर भय है और अर्जुनके भीतर निर्भयता है, उत्साह है, वीरता है।
'कपिध्वजः'-- अर्जुनके लिये 'कपिध्वज' व

अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
हे महीपते! धृतराष्ट्र! अब शस्त्रों के चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्य को धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थितरूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ये वचन बोले।
व्याख्या--'अथ'-- इस पदका तात्पर्य है कि अब सञ्जय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप 'भगवद्गीता' का आरम्भ करते हैं। अठारहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्लोकमें आये 'इति' पदसे यह संवाद समाप्त होता है। ऐसे ही भगवद्गीताके उपदेशका आरम्भ उसके दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे होता है और अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें यह उपदेश समाप्त होता है।
'प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते'-- यद्यपि पितामह भीष्मने युद्धारम्भकी घोषणाके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत केवल दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव और पाण्डव-सेनाने उसको युद्धारम्भकी घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र हाथमें उठाकर तैयार हो गये। इस तरह सेनाको शस्त्र उठाये देखकर वीरतामें भरकर अर्जुनने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथमें उठा लिया।
 'व्यवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् दृष्ट्वा'-- इन पदोंसे सञ्जय-का तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखा, तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्यके पास गया। परन्तु जब अर्जुनने कौरवोंकी सेनाको देखा, तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुषपर ही गया-- 'धनुरुद्यम्य'। इससे मालूम होता है दुर्योधनके भीतर भय है और अर्जुनके भीतर निर्भयता है, उत्साह है, वीरता है।
'कपिध्वजः'-- अर्जुनके लिये 'कपिध्वज' व

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