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मुस्कान... ~Nikita Savaliya | Hindi poetry | Life Poetry | Inspirational Poem Nikita Savaliya's Poetry

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Though we have everything enough to live , we always strives for more and more things, and Our joy is dependent on things.. This poetry depicts how a child who has nothing, not a home to live, not even a Food to eat and still smiling fully and not complaining any more........  सड़क के किनारे पर, आसमाँ की छत तले  एक घर रहता है,  फट्टी  पुरानी एक चादर है,  जिसमे रात के साये में  सभी का बदन ढँकता है,   अक्सर लोग दुसरो की जिंदगी में  बेवजह दखल अंदाजी किया करते है,  पर  यहाँ पलक  झपक के देखने की किसी को फुरसद नहीं मिलती,   तेज धुप हो,  या ड़रावनी बारिश ,  जैसी ही आती है  वैसी ही बदन में समा जाती है,   ये मौसम की सर्दिया ,  ये धुप की गर्मिया, बदन के नूर को उड़ा ले जाती है,  बदन का रंग साँवला कर जाती है,   बदन पे फट्टी हुई सी  कमीज़ रहती हैं  फिर भी चेहरे पे  तमीज़ रहती हैं,  घर पे बच्चे हैं दो-तीन,  नहीं हैं खाने में कोई पकवान , फिर भी होठो पे जिनके मुस्कान रहती है,   उस सड़क से गुजरते गुजरते , अचानक से युँ ही  पलकें उस और झपकती है,  जहाँ आसमाँ  तले अमीरी रहती हैं,   मुझे लगता हैं  शहर की बुलंद इमारतों में, और डाइनिंग टेबल के खानो में, ये  मुस्कान खरीदने की हैसियत नहीं हैं,   वरना रास्ते पे मिलनेवाला  हर कोई दूसरा शख्स  इतना मायुश नहीं होता.....  Written by : Nikita Savaliya

Though we have everything enough to live , we always strives for more and more things, and Our joy is dependent on things.. This poetry depicts how a child who has nothing, not a home to live, not even a Food to eat and still smiling fully and not complaining any more........  सड़क के किनारे पर, आसमाँ की छत तले  एक घर रहता है,  फट्टी  पुरानी एक चादर है,  जिसमे रात के साये में  सभी का बदन ढँकता है,   अक्सर लोग दुसरो की जिंदगी में  बेवजह दखल अंदाजी किया करते है,  पर  यहाँ पलक  झपक के देखने की किसी को फुरसद नहीं मिलती,   तेज धुप हो,  या ड़रावनी बारिश ,  जैसी ही आती है  वैसी ही बदन में समा जाती है,   ये मौसम की सर्दिया ,  ये धुप की गर्मिया, बदन के नूर को उड़ा ले जाती है,  बदन का रंग साँवला कर जाती है,   बदन पे फट्टी हुई सी  कमीज़ रहती हैं  फिर भी चेहरे पे  तमीज़ रहती हैं,  घर पे बच्चे हैं दो-तीन,  नहीं हैं खाने में कोई पकवान , फिर भी होठो पे जिनके मुस्कान रहती है,   उस सड़क से गुजरते गुजरते , अचानक से युँ ही  पलकें उस और झपकती है,  जहाँ आसमाँ  तले अमीरी रहती हैं,   मुझे लगता हैं  शहर की बुलंद इमारतों में, और डाइनिंग टेबल के खानो में, ये  मुस्कान खरीदने की हैसियत नहीं हैं,   वरना रास्ते पे मिलनेवाला  हर कोई दूसरा शख्स  इतना मायुश नहीं होता.....  Written by : Nikita Savaliya

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