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Poetry by Pratyush Srivastava

Akhiri Khat Pratyush Srivastava (सुख़नवर)

    • Arte

Poetry by Pratyush Srivastava

    जीवन का अस्तित्व क्या है

    जीवन का अस्तित्व क्या है

    अक्सर मानुष्य अपने जीवन से नहीं बल्की अपनी कल्पना और अपनी सोच से परशान रहता है

    • 7 min
    Yun hota toh kya hota

    Yun hota toh kya hota

    या वो होते किसी और जहां में, या ये दिल बेबाक़ न होता

    • 1 min
    Be Awaaz (बे आवाज़)

    Be Awaaz (बे आवाज़)

    हर छोटी बात आज कल रुला देती है,
    कोई परेशान रहे, ये सह नहीं पता, जाने क्यों
    पर खैर कौन किसी के ग़म में रोया है कभी
    बेशक अपना  ही कोई दर्द याद आता होगा
    अश्क अब बहते नहीं है, धीरे धीरे सरकते हैं
    डर है इन्हें, कि ये जो हजारों यादें क़ैद हैं हर कतरे में,
    कहीं तकिए की सलवटों में डूब कर वजूद ना खो दें
    सिसकियां अब शोर नहीं करती, दबे पैर आती हैं
    शायद इसलिए कि कोई सुन्दर सपना ना जग जाए
    थोड़ा रो लेने दो, जलती आंखों को कुछ राहत मिले
    - Pratyush

    • 1 min
    Aar do, ya paar do

    Aar do, ya paar do

    तेरे इंतज़ार में कलियों ने जाने कितने मौसम देख लिए

    इन्हें इनकी तकदीर बता दो, चाहे ख़िज़ा दो या बहार दो

    अब तो यह भी याद नहीं रहा कि इंतज़ार किस वक़्त का है

    ज़ुबाँ पर अटकी है जो बात, उसे कह दो या हलक से उतार दो

    यूँ न छोड़ जाओ , जान बाकी है मेरे टुकड़ों में अभी

    कोई तो जीने की वजह बताओ, या फिर पूरा ही मार दो ।

    ठुकरा कर मुझे किसी ग़ैर पर तो ज़ुल्म नहीं करते

    मैं तो तुम्हारा ही हूँ, तुम बर्बाद करो या सवाँर दो |

    एक ठहरा हुआ लम्हा है “सुख़नवर”,

    अब ये तुम पर है एक पल में गुज़ार दो, या पूरी उम्र निसार दो।

    - Pratyush

    • 1 min
    Ahl-e-safar (अह्ल-ऐ -सफ़र)

    Ahl-e-safar (अह्ल-ऐ -सफ़र)

    हर दौर में रहते हैं,
    नए दौर की तलाश में
    सफ़र को दस्तूर बना रखा है
    अपने ही ख़्वाबों को
    अधर में , भंवर में ,
    डूबने को छोड़
    निकल पड़ते हैं, रोज,
    नये सौर की तलाश में
    यूँ ही गुरूर था हमें ,
    अह्ल-ऐ -सफ़र पर “सुख़नवर”,
    वो साथ तो चलते गए,
    पर किसी और की तलाश में ।

    • 50 segundos
    Akhiri Khat (आखिरी खत)

    Akhiri Khat (आखिरी खत)

    अश्कों की स्याही से लिखे कुछ ख़त ,
    और मोड़ कर सिरहाने रख लिए|
    कुछ नज्में थीं , कुछ बातें थीं ,
    कुछ आँखों में बीती रातें थी|
    दिल के चंद टुकड़े भी थे,
    जो अब सीने में चुभने लगे थे|
    कुछ साँसे थी बची हुई,
    मद्धम और बेवजह सी|
    कुछ लम्हे थे बरसों पुराने,
    जो अब तक गुज़र न सके थे
    वक़्त से टूट कर आये थे वो,
    मेरे ख़त में पनाह मांग रहे थे|
    एक लम्हा और भी था,
    छोटा सा , बहुत ही प्यारा
    उसमे एक हँसी थी, दबी सी, बंधी सी
    एक झोंका था ठंडी बयार का ,
    रंग था उस लम्हे में, “सुख़नवर” ,
    यही तो रंग था मेरी आँखों का भी |
    कुछ रोज़ हुए वो ख़त लिखे हुए,
    अब तो शायद हर्फ़ भी मिट चले होंगे,
    हर आरज़ू की तरह, चुप चाप |
    उन पन्नों को तकिये में दफ़न कर आया हूँ,
    बचे हुए अश्कों के साथ,
    पहलू में खुद को सोता हुआ छोड़ आया हूँ |

    • 1 min

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