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श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन

श्रीमद्भगवद्गीता यथारू‪प‬ Anant Ghosh

    • Religion & Spirituality

श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.5

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.5

    यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते |
    एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति || ५ ||


    यत्– जो; सांख्यैः - सांख्य दर्शन के द्वारा; प्राप्यते– प्राप्त किया जाता है; स्थानम्– स्थान; तत्– वही; योगैः– भक्ति द्वारा; अपि– भी; गम्यते– प्राप्त कर सकता है; एकम्– एक; सांख्यम्– विश्लेषात्मक अध्ययन को; च– तथा; योगम्– भक्तिमय कर्म को; च– तथा; यः– जो; पश्यति– देखता है; सः– वह; पश्यति– वास्तव में देखता है |


    जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप मेंदेखता है |


    तात्पर्य : दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है | चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अतः इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है | सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि जीव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है | फलतः जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सराकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्र्वर से सम्बद्ध होने चाहिए | जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है | सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे कृष्णभावनाभावित कर्म में आसक्त होना होता है | वस्तुतः दोनों ही विधियाँ एक हैं, यद्यपि ऊपर से एक विधि में विरक्ति दीखती है और दूसरे में आसक्ति है | जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है |

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    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.4

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.4

    सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |
    एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् || ४ ||


    सांख्य– भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ– भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक्– भिन्न; बालाः– अल्पज्ञ; प्रवदन्ति– कहते हैं; न– कभी नहीं; पण्डिताः– विद्वान जन; एकम्– एक में; अपि– भी; आस्थितः– स्थित; सम्यक्– पूर्णतया; उभयोः– दोनों को; विन्दते– भोग करता है; फलम्– फल |


    अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |


    तात्पर्य : भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है | भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं | भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है | एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है | सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूँढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है | अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है | जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है |

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    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.3

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.3

    ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति |
    निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते || ३ ||


    ज्ञेयः– जानना चाहिए; सः– वह; नित्य - सदैव; संन्यासी– संन्यासी; यः– जो; न– कभी नहीं; द्वेष्टि– घृणा करता है; न– न तो; काङ्क्षति– इच्छा करता है; निर्द्वन्द्वः– समस्त द्वैतताओं से मुक्त; हि– निश्चय ही; महाबाहो– हे बलिष्ट भुजाओं वाले; सुखम्– सुखपूर्वक; बन्धात्– बन्धन से; प्रमुच्यते– पूर्णतया मुक्त हो जाता है |


    जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है | हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है |


    तात्पर्य : पूर्णतया कृष्णभावनाभावित पुरुष नित्य संन्यासी है क्योंकि वह अपने कर्मफल से न तो घृणा करता है, न ही उसकी आकांशा करता है | ऐसा संन्यासी, भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति के परायण होकर पूर्णज्ञानी होता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानता है | वह भलीभाँति जानता रहता है कि कृष्ण पूर्ण (अंशी) है और वह स्वयं अंशमात्र है | ऐसा ज्ञान पूर्ण होता है क्योंकि यह गुणात्मक तथा सकारात्मक रूप से सही है | कृष्ण-तादात्मय की भावना भ्रान्त है क्योंकि अंश अंशी के तुल्य नहीं हो सकता | यह ज्ञान कि एकता गुणों की है न कि गुणों की मात्रा की, सही दिव्यज्ञान है, जिससे मनुष्य अपने आप में पूर्ण बनता है, जिससे न तो किसी वस्तु की आकांक्षा रहती है न किसी का शोक | उसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं रहता क्योंकि वह जो कुछ भी करता है कृष्ण के लिए करता है | इस प्रकार छल-कपट से रहित होकर वह इस भौतिक जगत् से भी मुक्त हो जाता है |

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    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.2

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.2

    श्रीभगवानुवाच
    संन्यासः कर्मयोगश्र्च निःश्रेयसकरावुभौ |
    तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते || २ ||


    श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास– कर्म का परित्याग; कर्मयोगः– निष्ठायुक्त कर्म; च– भी; निःश्रेयस-करौ– मुक्तिपथ को ले जाने वाले; उभौ– दोनों; तयोः– दोनों में से; तु– लेकिन; कर्म-संन्यासात्– सकामकर्मों के त्याग से; कर्म-योगः – निष्ठायुक्त कर्म;विशिष्यते– श्रेष्ठ है |


    श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है |


    तात्पर्य:सकाम कर्म (इन्द्रियतृप्ति में लगाना) ही भवबन्धन का कारण है | जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभिन्न प्रकार के शरीरों में देहान्तरण करते हुए भवबन्धन को बनाये रखता है | इसकी पुष्टि भागवत (५.५.४-६) में इस प्रकार हुई है-

    नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति |
    न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ||
    पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् |
    यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ||
    एवं मनः कर्मवशं प्रयुंक्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने |
    प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् ||

    “लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे मत्त हैं | वे यह नहीं जानते कि उनका क्लेशों से युक्त यह शरीर उनके विगत सकाम-कर्मों का फल है | यद्यपि यह शरीर नाशवान है, किन्तु यह नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है | अतः इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करना श्रेयस्कर नहीं है | जब तक मनुष्य अपने असली स्वरूप के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ रहता है | और जब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान

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    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.1

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.1

    अर्जुन उवाच
    सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि |
    यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्र्चितम् || १ ||


    अर्जुनः उवाच– अर्जुन ने कहा; संन्यासम्– संन्यास; कर्मणाम्– सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण– हे कृष्ण; पुनः– फिर; योगम्– भक्ति; च – भी;शंससि– प्रशंसा करते हो; यत्– जो; श्रेयः– अधिक लाभप्रद है; एतयोः– इन दोनों में से; एकम्– एक; तत्– वह; मे– मेरे लिए;ब्रूहि– कहिये; सु-निश्चितम्– निश्चित रूप से |


    अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं | क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?


    तात्पर्य :भगवद्गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान् बताते हैं कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिन्तन से श्रेष्ठ है | भक्ति-पथ अधिक सुगम है, क्योंकि दिव्यस्वरूपा भक्ति मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त करती है | द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बन्धन का सामान्य ज्ञान बतलाया गया है | उसी में बुद्धियोग अर्थात् भक्ति द्वारा इस भौतिक बन्धन से निकलने का भी वर्णन हुआ है | तृतीय अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञानी को कोई कार्य नहीं करने पड़ते | चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को बताया है कि सारे यज्ञों का पर्यवसान ज्ञान में होता है, किन्तु चतुर्थ अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन को सलाह दी कि वह पूर्णज्ञान से युक्त होकर, उठ करके युद्ध करे | अतः इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञानयुक्त-अकर्म की महत्ता पर बल देते हुए कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है | अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय संन्यास का अर्थ है – इन्द्रियकार्यों के रूप में समस्त प्रकार के कार्यकलापों का परित्याग | किन्तु यदि भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर

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    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.42

    श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.42

    तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः |
    छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत || ४२ ||


    तस्मात्– अतः; अज्ञान-सम्भूतम्– अज्ञान से उत्पन्न; हृत्स्थम्– हृदय में स्थित; ज्ञान– ज्ञान रूपी; असिना– शस्त्र से; आत्मनः– स्व के; छित्त्वा– काट कर; एनम्– इस; संशयम्– संशय को; योगम्– योग में; अतिष्ठ– स्थित होओ; उत्तिष्ठ– युद्ध करने के लिए उठो; भारत– हे भरतवंशी |


    अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो | हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो |


    तात्पर्य : इस अध्याय में जिस योगपद्धति का उपदेश हुआ है वह सनातन योग कहलाती है | इस योग में दो तरह के यज्ञकर्म किये जाते है – एक तो द्रव्य का यज्ञ और दूसरा आत्मज्ञान यज्ञ जो विशुद्ध आध्यात्मिक कर्म है | यदि आत्म-साक्षात्कार के लिए द्रव्ययज्ञ नहीं किया जाता तो ऐसा यज्ञ भौतिक बन जाता है | किन्तु जब कोई आध्यात्मिक उद्देश्य या भक्ति से ऐसा यज्ञ करता है तो वह पूर्णयज्ञ होता है | आध्यात्मिक क्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं – आत्मबोध (या अपने स्वरूप को समझना) तथा श्रीभगवान् विषयक सत्य | जो भगवद्गीता के मार्ग का पालन करता है वह ज्ञान की इन दोनों श्रेणियों को समझ सकता है | उसके लिए भगवान् के अंश स्वरूप आत्मज्ञान को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है | ऐसा ज्ञान लाभप्रद है क्योंकि ऐसा व्यक्ति भगवान् के दिव्य कार्यकलापों को समझ सकता है | इस अध्याय के प्रारम्भ में स्वयं भगवान् ने अपने दिव्य कार्यकलापों का वर्णन किया है | जो व्यक्ति गीता के उपदेशों को नहीं समझता वह श्रद्धाविहीन है और जो भगवान् द्वारा उपदेश देने पर भी भगवान् के सच्चिदानन्द स्वरूप को नहीं समझ पाता तो यह समझना चाहिए कि वह निपट मूर्ख है | कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को स

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