श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.2

श्रीभगवानुवाच संन्यासः कर्मयोगश्र्च निःश्रेयसकरावुभौ | तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते || २ || श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास– कर्म का परित्याग; कर्मयोगः– निष्ठायुक्त कर्म; च– भी; निःश्रेयस-करौ– मुक्तिपथ को ले जाने वाले; उभौ– दोनों; तयोः– दोनों में से; तु– लेकिन; कर्म-संन्यासात्– सकामकर्मों के त्याग से; कर्म-योगः – निष्ठायुक्त कर्म;विशिष्यते– श्रेष्ठ है | श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है | तात्पर्य:सकाम कर्म (इन्द्रियतृप्ति में लगाना) ही भवबन्धन का कारण है | जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभिन्न प्रकार के शरीरों में देहान्तरण करते हुए भवबन्धन को बनाये रखता है | इसकी पुष्टि भागवत (५.५.४-६) में इस प्रकार हुई है- नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति | न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः || पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् | यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः || एवं मनः कर्मवशं प्रयुंक्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने | प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् || “लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे मत्त हैं | वे यह नहीं जानते कि उनका क्लेशों से युक्त यह शरीर उनके विगत सकाम-कर्मों का फल है | यद्यपि यह शरीर नाशवान है, किन्तु यह नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है | अतः इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करना श्रेयस्कर नहीं है | जब तक मनुष्य अपने असली स्वरूप के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ रहता है | और जब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान लेत