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42. अहंकार के पहल‪ू‬ Gita Acharan

    • Spirituality

श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन अहम्-कर्ता - अहंकार की भावना से अभिभूत है और यह उसके विषाद का कारण है। श्रीकृष्ण अर्जुन (2.41) को सलाह देते हैं कि वह अहंकार को तोडऩे और स्वयं (2.49) तक पहुँचने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करे।

अहंकार के कई रूप हैं। गर्व अहंकार का एक छोटा सा हिस्सा है। जब कोई व्यक्ति सफलता/जीत/लाभ के सुख की ध्रुवता से गुजरता है तो उस अहंकार को अभिमान कहा जाता है और जब कोई विफलता/हार/नुकसान की पीड़ा की ध्रुवीयता से गुजरता है तो उस अहंकार को उदासी, दुख, क्रोध कहा जाता है। जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं तो यह ईष्र्या है और जब हम दूसरों को दुखी देखते हैं तो यह सहानुभूति है।

अहंकार हम पर हावी होता है जब हम भौतिक संपत्ति एकत्र कर रहे होते हैं और जब हम उन्हें छोड़ते हैं तब भी वह मौजूद होता है। यह संसार में कर्म करने के लिए और संन्यास लेने के लिए भी प्रेरित करता है। यह बनाने के पीछे तो है, साथ ही बिगाडऩे के पीछे भी है। यह ज्ञान में भी है और अज्ञान में भी।

प्रशंसा अहंकार को बढ़ावा देती है और आलोचना पीड़ा देती है। ये दोनों दशाएँ हमें दूसरों द्वारा हेरफेर के लिए उत्तरदायी बनाती हैं। संक्षेप में, अहंकार किसी न किसी अर्थ में हर भावना के पीछे होता है जो हमारे बाहरी व्यवहार को प्रभावित करता है। अहंकार हमें सफलता और समृद्धि की ओर ले जाता प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह अस्थायी रूप से नशे में धुत्त होने जैसा है।

‘मैं’ और‘मेरा’ अहंकार के पैर हैं और दैनिक बातचीत और विचारों में इन शब्दों के प्रयोग से बचने से व्यक्ति काफी हद तक अहंकार को कमजोर कर सकता है।

अहंकार का जन्म तब होता है जब हम एक या दूसरे ध्रुव के साथ पहचान करना चुनते हैं और इसीलिए बिना किसी भावना के साथ पहचान किए श्लोक 2.48 में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सलाह दी कि वह बीच में विकल्पहीन रहे जहां

श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन अहम्-कर्ता - अहंकार की भावना से अभिभूत है और यह उसके विषाद का कारण है। श्रीकृष्ण अर्जुन (2.41) को सलाह देते हैं कि वह अहंकार को तोडऩे और स्वयं (2.49) तक पहुँचने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करे।

अहंकार के कई रूप हैं। गर्व अहंकार का एक छोटा सा हिस्सा है। जब कोई व्यक्ति सफलता/जीत/लाभ के सुख की ध्रुवता से गुजरता है तो उस अहंकार को अभिमान कहा जाता है और जब कोई विफलता/हार/नुकसान की पीड़ा की ध्रुवीयता से गुजरता है तो उस अहंकार को उदासी, दुख, क्रोध कहा जाता है। जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं तो यह ईष्र्या है और जब हम दूसरों को दुखी देखते हैं तो यह सहानुभूति है।

अहंकार हम पर हावी होता है जब हम भौतिक संपत्ति एकत्र कर रहे होते हैं और जब हम उन्हें छोड़ते हैं तब भी वह मौजूद होता है। यह संसार में कर्म करने के लिए और संन्यास लेने के लिए भी प्रेरित करता है। यह बनाने के पीछे तो है, साथ ही बिगाडऩे के पीछे भी है। यह ज्ञान में भी है और अज्ञान में भी।

प्रशंसा अहंकार को बढ़ावा देती है और आलोचना पीड़ा देती है। ये दोनों दशाएँ हमें दूसरों द्वारा हेरफेर के लिए उत्तरदायी बनाती हैं। संक्षेप में, अहंकार किसी न किसी अर्थ में हर भावना के पीछे होता है जो हमारे बाहरी व्यवहार को प्रभावित करता है। अहंकार हमें सफलता और समृद्धि की ओर ले जाता प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह अस्थायी रूप से नशे में धुत्त होने जैसा है।

‘मैं’ और‘मेरा’ अहंकार के पैर हैं और दैनिक बातचीत और विचारों में इन शब्दों के प्रयोग से बचने से व्यक्ति काफी हद तक अहंकार को कमजोर कर सकता है।

अहंकार का जन्म तब होता है जब हम एक या दूसरे ध्रुव के साथ पहचान करना चुनते हैं और इसीलिए बिना किसी भावना के साथ पहचान किए श्लोक 2.48 में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सलाह दी कि वह बीच में विकल्पहीन रहे जहां

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