Gita Acharan

Siva Prasad
Gita Acharan

Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.

  1. 117. ਸੰਜਮ ਦੀ ਕਲਾ

    6 HR. AGO

    117. ਸੰਜਮ ਦੀ ਕਲਾ

    ਕਈ ਗੱਲਾਂ ਕਾਰਨ ਸਾਡਾ ਦਿਮਾਗ ਇਕ ਅਦਭੁੱਤ ਅੰਗ ਹੈ। ਇਸ ਦੀਆਂ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ਤਾਵਾਂ ਵਿਚੋਂ ਇਕ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਦਰਦ ਮਹਿਸੂਸ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿਉਂਕਿ ਇਸਦੇ ਟਿਸ਼ੂਆਂ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਨੂੰ ਸੰਚਾਰਿਤ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੋਸਿਸੈਪਟਰ ਨਹੀਂ ਹੰੁਦੇ। ਨਿਊਰੋਸਰਜਨ ਇਸਦੀ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ਤਾ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਮਰੀਜ਼ ਦੇ ਜਾਗਦੇ ਸਮੇਂ ਸਰਜਰੀ ਕਰਨ ਲਈ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਸਰੀਰਕ ਦਰਦ ਅਤੇ ਸੁੱਖ ਦਿਮਾਗ ਦੀ ਨਿਰਪੱਖ ਅਵਸਥਾ ਨਾਲ ਤੁਲਨਾ ਕਰਨ ਦਾ ਪਰਿਣਾਮ ਹਨ। ਅਜਿਹੀ ਹੀ ਨਿਰਪੱਖ ਅਵਸਥਾ ਮਾਨਸਿਕ ਪੱਧਰ ਉੱਤੇ ਵੀ ਹੰੁਦੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਤੁਲਨਾ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਕਾਰਨ ਮਾਨਸਿਕ ਪੀੜ ਅਤੇ ਸੁੱਖ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਹੰੁਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਪਿੱਠਭੂਮੀ ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਸਮਝਾਉਣ ਵਿੱਚ ਮੱਦਦ ਕਰੇਗੀ, ਜੋ ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜਦੋਂ ਯੋਗ ਦੇ ਅਭਿਆਸ ਨਾਲ ਸੰਜਮ ਵਿੱਚ ਆਇਆ ਮਨ ਸਥਿਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਉਹ ਅਪਣੇ ਖੁਦ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਵੇਖਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹ ਆਤਮ ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਹੰੁਦਾ ਹੈ (6.20)। ਮੂਲ ਕੁੰਜੀ ਸਥਿਰ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਸਦਾ ਅਪਣੇ ਡਗਮਗਾਉਂਦੇ ਜਾਂ ਅਸਥਿਰ ਮਨ ਨੂੰ ਸਥਿਰ ਕਰਨਾ ਹੈ। ਇਸ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਲਈ ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਸੰਜਮ ਦਾ ਸੁਝਾਅ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਸੰਜਮ ਦਾ ਅਰਥ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਦਾ ਦਮਨ ਜਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਅਭਿਵਿਅਕਤੀ ਕਰਨਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਜਾਗਰੂਕਤਾ ਦੇ ਮਾਧਿਅਮ ਰਾਹੀਂ ਸਾਖਸ਼ੀ ਬਣ ਕੇ ਦੇਖਣਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਬੀਤੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਸਥਿਤੀਆਂ ਦਾ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਕਰਕੇ ਅਸਾਨੀ ਨਾਲ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ। ਅੰਤ ਵਿੱਚ ਇਹ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਹਰ ਥਾਂ ਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਦੇਖਣਾ ਹੈ। ਇਕ ਵਾਰ ਜਦੋਂ ਅਸੀਂ ਸੰਜਮ ਦੀ ਇਸ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਮੁਹਾਰਤ ਹਾਸਲ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਾਂ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਉਸ ਨਿਰਪੱਖ ਬਿੰਦੂ ਜਾਂ ਸਰਵ ਉੱਚ ਆਨੰਦ ਤੱਕ ਪਹੰੁਚਣ ਲਈ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਦੇ ਧਰੁਵੀਤਾ ਨੂੰ ਪਾਰ ਕਰ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ। ਇਸ ਸੰਬੰਧੀ ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ‘‘ਜਦੋਂ ਉਹ ਉਸ ਪਰਮ ਆਨੰਦ ਨੂੰ ਜਾਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੀ ਸਮਝ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹੈ, ਅਤੇ ਕੇਵਲ ਬੁੱਧੀ ਦੁਆਰਾ ਹੀ ਜਾਣਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਕ ਵਾਰ ਸਥਾਪਿਤ ਹੋ ਜਾਣ ਤੋਂ ਬਾਦ ਉਹ ਅਸਲੀਅਤ ਤੋਂ ਕਦੇ ਵੀ ਡਗਮਗਾਉਂਦਾ ਨਹੀਂ (6.21)। ਇਹ ਪਰਮ ਆਨੰਦ ਇੰਦਰੀਆਂ ਤੋਂ ਪਾਰ ਹੈ। ਉਸ ਅਵਸਥਾ ਵਿੱਚ ਸਵਾਦੀ ਭੋਜਨ ਜਾਂ ਪ੍ਰਸ਼ੰਸਾ ਆਦਿ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ ਹੰੁਦੀ। ਸੰਜੋਗ ਨਾਲ ਅਸੀਂ ਸਾਰੇ ਹੀ ਇਸ ਆਨੰਦ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਨਿਸ਼ਕਾਮ ਕਰਮ ਦੇ ਛਿਣਾਂ ਵਿੱਚ ਜਾਂ ਧਿਆਨ ਦੇ ਛਿਣਾਂ ਵਿੱਚ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਇਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪਛਾਣਨ ਅਤੇ ਪ੍ਰਗਟਾਉਣ ਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਹੈ।

    4 min
  2. 6 HR. AGO

    254. Consequences of Ahankaar

    When we don't follow natural laws there are adverse consequences. For example, if someone jumps from a height ignoring gravity, the consequences are inevitable. Krishna cautions about the consequences of violating the principles of existence or natural laws as explained by Him in the Bhagavad Gita. He says, "Fixing your mind on Me you shall overcome all obstacles and difficulties by My grace. You will perish if you do not listen to My advice due to ahankaar" (18.58). Perishing is inevitable like falling from a height when we are driven by ahankaar (aham-karta). Krishna says, "Because of ahankaar if you think 'I will not fight,' your resolution will be in vain. Your nature will compel you to fight" (18.59). Firstly, the war wouldn't have come to an end even if Arjun had left the battlefield. Secondly, Arjun wouldn't have sat idle when the battle was going on where his immediate family is facing danger. This verse indicates that Arjun would come back and would fight the battle as fighting is his swa-dharm (own nature). Krishna further says, "That action which out of delusion you do not wish to do, you will be driven to do by your own inclination, born of your own swa-bhav (material nature)" (18.60). This is one of the common dilemmas faced by us. Many times we resolve to remain silent or don't say hurtful words to our loved ones when they do or say something which is not to our liking. But in that moment we do exactly the opposite of what we planned to execute. Though it looks simple from the outside but our swa-bhav takes over at that moment. This verse indicates that under delusion we are driven by swa-bhav rather than natural laws. As this delusion is caused by ahankaar, the essence is to shed ahankaar.

    3 min
  3. 163. समय किसी का इंतजार नहीं करता

    12 HR. AGO

    163. समय किसी का इंतजार नहीं करता

    श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं अस्त्रों में वज्र हूँ; मैं गायों में कामधेनु हूँ; संतान की उत्पत्ति के हेतु में मैं प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में सर्पराज वासुकि हूँ (10.28)। जलचरों में मैं वरुण हूँ; शासन करनेवालों में मैं यमराज हूँ (10.29)। मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूँ; मापने वालों में मैं समय हूँ" (10.30)। पहले श्रीकृष्ण ने कहा था 'मैं मृत्यु हूँ' और अब वे कहते हैं वह कामदेव भी हैं। इसके लिए गहन मंथन करने की आवश्यकता है। हमें अपनी समझ की सीमाओं को पार करना होगा। चीजों को अच्छे या बुरे के रूप में विभाजन करने की हमारी प्रवृत्ति ही बाधा है। इस विभाजन के कारण हम जन्म को अच्छा और मृत्यु को बुरा मानते हैं। हर प्राणी अपने वंश को बढ़ाना चाहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह हर प्राणी में मौजूद 'इच्छा' हैं जो जीवों की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है। यह बाहर की ओर या दूसरों की ओर बहने वाली ऊर्जा है। जब यह ऊर्जा अंदर की ओर बहती है तो यह भक्ति के अलावा और कुछ नहीं है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि शासन करने वालों में वह यमराज (मृत्यु के देवता) हैं। मृत्यु आत्मा के स्तर पर शक्तिहीन है, लेकिन बाहरी दुनिया में यह शक्तिशाली और अटल है। मृत्यु आसक्ति के बिना समदर्शी होती है। यह किसी भी कानून के रखवाले के लिए आवश्यक गुण है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह दैत्यों में प्रह्लाद है। यह दर्शाता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी भक्त बनने की संभावना होती है। जिस प्रकार कोयले का एक टुकड़ा प्रतिकूल परिस्थितियों में हीरा बनता है, उसी प्रकार हम भी सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों की ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह समय हैं जो सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध है - बस एक वर्तमान क्षण। चाहे कोई कितना भी अमीर या शक्तिशाली क्यों न हो, समय किसी का इंतजार नहीं करता। श्रीकृष्ण के लिए जीवन एक उत्सव की तरह है जो आंतरिक स्थिति है। बाहरी परिस्थितियों के बावजूद प्रह्लाद ने इसे प्राप्त किया था। यह इस जागरूकता से हासिल होता है कि सबकुछ परमात्मा ही हैं।

    4 min
  4. 107. పరమానందం కోసం ధ్యానం

    12 HR. AGO

    107. పరమానందం కోసం ధ్యానం

    బఠానీ గింజ పరిమాణములో,  శంకు ఆకారంలో ఉండే పీనియల్ గ్రంథి మెదడు యొక్క కేంద్రంలో సరిగ్గా రెండు కనుబొమల మధ్యన ఉంటుంది. శారీరకంగా ఇది మెలటోనిన్, సెరటోనిన్ అనే నాడీ ప్రసారకాలను (neurotransmitters) ఉత్పత్తి చేసి మన నిద్రకు, భావోద్వేగాలకు కారణమవుతుంది. దీనిలో మామూలు కంటిలాగే కాంతి గ్రాహకాలు (photo receptors) ఉంటాయి కనుక దీనిని 'మూడవ కన్ను' అంటారు. ఇది ఆత్మకు పీఠమని, ఆధ్యాత్మిక సాక్షాత్కారానికి కారణమని; పంచేంద్రియాలకు అందని భావనను అందుకోగలిగే ఆరో ఇంద్రియమని; ఆధ్యాత్మిక జాగృతికి సంకేతమని; భౌతిక, ఆధ్యాత్మిక జగతికి మధ్య సంధానమని అనేక సంస్కృతులు దాన్ని అనేక విధాలుగా వర్ణించాయి. భారతీయ పరిభాషలో కనుబొమల మధ్య ఉండే ప్రదేశాన్ని 'ఆజ్ఞా చక్రం' అంటారు. ఇది పీనియల్ గ్రంథి ఉండే స్థానాన్ని సూచిస్తుంది. ఇంద్రియాలు, మనస్సును అదుపులో పెట్టేమార్గంలో శ్రీకృష్ణుడి విధానాన్ని అర్థం చేసుకోవడానికి పై వివరణ మనకు ఉపకరిస్తుంది. “బాహ్య విషయ భోగములను చింతన చేయక వాటిని పారద్రోలవలెను. దృష్టిని భ్రూమధ్యమునందు స్థిరముగా ఉంచవలెను. నాసిక యందు ప్రసరించుచున్న ప్రాణాపాన వాయువులను సమస్థితిలో నడుపవలెను. ఈ ప్రక్రియల ప్రభావమున మనస్సు, బుద్ధి, ఇంద్రియములు సాధకుని వశములోనికి వచ్చును. ఇట్టి సాధన వలన మోక్షపరాయణుడైన ముని ఇచ్ఛా భయక్రోధ రహితుడై సదా ముక్తుడగును” అని శ్రీకృష్ణుడు ధ్యానానికి ఒక మార్గాన్ని సూచించారు (5.27-28). అర్జునుడుకి తన ఇంద్రియాలను, మనస్సును, బుద్ధిని నియంత్రించడానికి భగవానుడు ఈ విధానము అందించారు. 'విజ్ఞాన భైరవ తంత్ర' లో పరమశివుడు చెప్పిన 112 ధ్యాన విధానాలు ఉన్నాయి. అందులో ఒక ధ్యాన విధానం “ఎటువంటి ఆలోచనలు లేకుండా మీ కనుబొమల మధ్య ఉన్న బిందువు పై దృష్టి కేంద్రీకరించండి. దివ్యమైన శక్తి ప్రజ్వలితమై మీ తల యొక్క అగ్ర భాగం వరకు వ్యాపిస్తుంది. తక్షణమే మిమ్మల్ని పరమానందంలో ముంచేస్తుంది” అని చెప్తుంది. మన దృష్టిని గాయపడిన భాగాల వైపు మళ్లించేందుకు నొప్పి అనేది ఒక సాధనం. ఇది మన ఆరోగ్య జీవనానికి ఉపయోగపడుతుంది. అలాగే అవగాహనతో కూడిన దృష్టిని కనుబొమల మధ్య ప్రాంతానికి తీసుకువచ్చి పీనియల్ గ్రంధిని సక్రియం చేయాలి. ఈ క్రియాశీలత ఇంద్రియాల నుండి ఎటువంటి సహాయం లేకుండా మనలో అంతర్గత పారవశ్యాన్ని నింపుతుంది.

    4 min
  5. 162. छठी इंद्रिय

    5 DAYS AGO

    162. छठी इंद्रिय

    श्रीकृष्ण कहते हैं, "आदित्यों में मैं विष्णु हूँ; मैं चमकता हुआ सूर्य और चंद्रमा हूँ (10.21)। वेदों में, मैं सामवेद हूँ; मैं वसुव (इंद्र) हूँ; इंद्रियों में मैं मन हूँ; प्राणियों में मैं चेतना हूँ (10.22)। रुद्रों में मैं शंकर हूँ; मैं कुबेर हूँ (10.23)। मैं बृहस्पति हूँ; समस्त जलाशयों में मैं समुद्र हूँ” (10.24)। श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि वह सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा है (10.20) और साथ ही एक पदानुक्रम दिया था कि आत्मा बुद्धि से श्रेष्ठ है; बुद्धि मन से श्रेष्ठ है; मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है (3.42)। लेकिन यहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह इंद्रियों में मन हैं जिसे समझने की जरूरत है। ऐसा कहा जाता है कि 'समूचा, अपने भागों के जोड़ से बड़ा होता है'। इसकी झलक 'एक और एक ग्यारह' की कहावत में भी मिलती है। कुल मिलाकर दो कान ध्वनि की दिशा का बोध करा सकते हैं; दो आंखें मिलकर गहराई का बोध पैदा कर सकती हैं। मन को देखने का एक तरीका यह है कि यह इंद्रियां जैसे कान, आंख आदि का सामान्य जोड़ है। दूसरा तरीका यह है कि इसे 'समूचे इंद्रियों' के रूप में देखें, जहां एक साथ ये इंद्रियां सभी इंद्रियों के जोड़ से कहीं अधिक क्षमता रखती हैं। आधुनिक संदर्भ में इसे 'इंद्रियों से परे' या 'छठी इंद्रिय' भी कहा जाता है। श्रीकृष्ण इस छठी इंद्रिय की बात कर रहे हैं जब वे कहते हैं कि वह इंद्रियों में मन हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "शब्दों में मैं ओंकार हूँ; अचल वस्तुओं में हिमालय हूँ (10.25)। सभी वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ; मैं नारद हूँ; मैं मुनि कपिल हूँ (10.26)। मैं सभी हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा हूँ" (10.27)। उपरोक्त सभी वर्णनों में एक सामान्य सूत्र यह है कि उपलब्ध विकल्पों में से वह सबसे बड़ी संभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे 'चरम प्रदर्शन' कहा जाता है जैसे कि पानी की बूंदों का समुद्र बन जाना।

    3 min
  6. 106. సంతోషపు కళ్లాలు

    6 DAYS AGO

    106. సంతోషపు కళ్లాలు

    ఒకసారి మధ్య ఆసియా నుంచి ఒక ఆక్రమణదారుడు వచ్చి ఢిల్లీని ఆక్రమించుకుని విజయోత్సవము జరపాలనుకున్నాడు. అందుకు గాను ఒక ఏనుగుని అలంకరించి సిద్ధం చేశారు. దాన్ని అధిరోహించగానే ఏనుగు కళ్లాలు తనకు ఇవ్వమని అతడు అడిగాడు. ఏనుగును మావటి తన అంకుశం ద్వారా నియంత్రిస్తారని తెలుసుకోగానే అతను క్రిందికి దూకి తన గుర్రాన్ని పిలిపించుకొని కళ్లాలు తన చేతిలో లేని దాన్ని తాను అధిరోహించనని అన్నాడు. అలాగే మన సంతోషము, భావోద్వేగాల యొక్క కళ్లాలు మన చేతుల్లో ఉన్నాయా లేక ఇతరుల చేతుల్లో ఉన్నాయా అని మనం ఆత్మవిశ్లేషణ చేసుకోవాలి. వీటి కళ్లాలు మన వద్దే ఉన్నాయని మనం భావిస్తాము కానీ నిజానికి ఈ కళ్లాలు తరచుగా ఇతరుల చేతుల్లో ఉంటాయి. అది ఒక స్నేహితుడు కావచ్చు; కుటుంబంలో ఎవరైనా కావచ్చు; సహోద్యోగి కావచ్చు; వారి మనస్థితి, భావాలు, మాటలు, పొగడ్తలు, విమర్శలు మనల్ని సంతోషానికి లేక బాధకు గురిచేస్తాయి. వీటిలో ఆహారం, పానీయాల వంటి వస్తువులు; భౌతిక సంపదలు; అనుకూల, ప్రతికూలమైన పరిస్థితులు; చివరికి మన గతం, భవిష్యత్తు కూడా ఉండవచ్చు. “ఈ శరీరమును విడువకముందే అనగా జీవించి ఉండగానే కామక్రోధాదుల ఉద్వేగములను అదుపులో ఉంచుకోగల సాధకుడే నిజమైన సుఖి, యోగి” (5.23) అని ఈ విషయంలో శ్రీకృష్ణుడు చెబుతారు. “అంతరాత్మ యందే సుఖించువాడు, ఆత్మయందే రమించు వాడు, ఆత్మజ్ఞాని అయినవాడు అగు ఒక సాంఖ్యయోగి, పరబ్రహ్మమైన పరమాత్మ యందు ఏకీభావ స్థితుడై బ్రహ్మ నిర్వాణమును పొందును (5.24). పాప రహితులును, జ్ఞాన ప్రభావమున సమస్త సంశయముల నివృత్తిని సాధించిన వారును, సర్వప్రాణుల హితమును కోరువారును, నిశ్చల స్థితితో మనస్సును పరమాత్మ యందు లగ్నము చేసినవారును అగు బ్రహ్మవేత్తలు బ్రహ్మ నిర్వాణమును పొందుదురు” (5.25) అని శ్రీకృష్ణుడు వివరించారు. సర్వప్రాణుల హితము అంటే ఇతరుల పట్ల దయతో పాటు స్వయాన్ని గురించిన అవగాహనను పొందడం. కామాన్ని, మోహాన్ని జయించి క్రోధాన్ని అదుపులో పెట్టుకోవడమే తమకు తాము సహాయం చేసుకోవడము. ఇది సాధించిన తర్వాత ఇతరులకు సహాయం చేయగలమని శ్రీకృష్ణుడు సూచిస్తారు.

    3 min
  7. 116. ਅਧਿਆਤਮ ਦਾ ਸਹਿਜ ਮਾਰਗ

    6 DAYS AGO

    116. ਅਧਿਆਤਮ ਦਾ ਸਹਿਜ ਮਾਰਗ

    ਅਧਿਆਤਮਕ ਪੱਖ ਦੇ ਸਬੰਧ ਵਿੱਚ ਆਮ ਧਾਰਨਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਨੂੰ ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਨਿਭਾਉਣਾ ਬਹੁਤ ਔਖਾ ਹੈ। ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਨੇ ਪਹਿਲਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਭਰੋਸਾ ਦਿਵਾਇਆ ਸੀ ਕਿ ਛੋਟੇ ਯਤਨ ਕਰਮਯੋਗ ਵਿੱਚ ਬਹੁਤ ਲਾਭਕਾਰੀ ਸਿੱਧ ਹੰੁਦੇ ਹਨ (2.40)। ਉਹ ਇਸੇ ਨੂੰ ਹੋਰ ਸੌਖਾ ਕਰਕੇ ਸਮਝਾਉਂਦੇ ਹਨ, ਜਦੋਂ ਉਹ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ‘‘ਦੁੱਖਾਂ ਨੂੰ ਨਾਸ਼ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਯੋਗ ਤਾਂ ਠੀਕ ਢੰਗ ਨਾਲ ਆਹਾਰ-ਵਿਹਾਰ, ਕਰਮਾਂ ਵਿੱਚ ਠੀਕ ਰੁੱਚੀ ਰੱਖਣਾ ਅਤੇ ਠੀਕ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਸੌਣ ਤੇ ਜਾਗਣ ਵਾਲੇ ਦਾ ਹੀ ਸਿੱਧ ਹੰੁਦਾ ਹੈ’’ (6.17)। ਯੋਗ ਤੇ ਅਧਿਆਤਮਕ ਮਾਰਗ ਉਨਾਂ ਹੀ ਆਸਾਨ ਹੈ ਜਿੰਨਾ ਭੁੱਖ ਲੱਗਣ ਉੱਤੇ ਭੋਜਨ ਕਰਨਾ, ਸਮੇਂ ਉੱਤੇ ਕੰਮ ਕਰਨਾ, ਸਮੇਂ ਉੱਤੇ ਸੌਣਾ ਅਤੇ ਥੱਕ ਜਾਣ ਉੱਤੇ ਆਰਾਮ ਕਰਨਾ। ਇਸ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਤਾਂ ਬਾਕੀ ਸਿਰਫ ਗੱਲਾਂ ਹਨ ਜਿਹੜੀਆਂ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਜਾ ਦੂਜਿਆਂ ਨੂੰ ਦੱਸਦੇ ਹਾਂ। ਇਕ ਬੱਚੇ ਨੂੰ ਇਕ ਬੁਢੇ ਬੰਦੇ ਦੀ ਤੁਲਨਾ ਵਿੱਚ ਵਧੇਰੇ ਨੀਂਦ ਦੀ ਲੋੜ ਹੰੁਦੀ ਹੈ। ਭੋਜਨ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿੱਚ ਸਾਡੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਦਿਨ ਦੀ ਸਰੀਰਕ ਗਤੀਵਿਧੀਆਂ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਵੱਖਰੀਆਂ ਹੋ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਦਰਸਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ‘ਠੀਕ ਜਾਂ ਯਥਾਯੋਗ’ ਦਾ ਅਰਥ ਵਰਤਮਾਨ ਛਿਣਾਂ ਵਿੱਚ ਜਾਗਰੂਕ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਪਹਿਲਾਂ ਕਰਨਯੋਗ ਕਰਮ (6.1) ਜਾਂ ਨਿਅਤ ਕਰਮ (3.8) ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਹਵਾਲਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਸੀ। ਸਾਡਾ ਦਿਮਾਗ਼ ਆਪਣੀ ਕਲਪਨਾ ਰਾਹੀਂ ਸਧਾਰਣ ਤੱਥਾਂ ਨੂੰ ਵਧਾ-ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਇਸਦੇ ਦੁਆਲੇ ਪੇਚੀਦਾ ਕਹਾਣੀਆਂ ਦਾ ਜਾਲ ਬੁਣਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਕਹਾਣੀਆਂ ਜੋ ਅਸੀਂ ਖੁਦ ਨੂੰ ਸੁਣਾਉਂਦੇ ਹਾਂ ਇਹ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਨਾਇਕ ਜਾਂ ਖਲਨਾਇਕ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਪ੍ਰਸਥਿਤੀਆਂ ਨੂੰ ਸੁੱਖਮਈ ਜਾਂ ਦਯਾਭਾਵ ਵਾਲੀਆਂ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਕਹਾਣੀਆਂ ਸਾਡੇ ਸ਼ਬਦਾਂ ਅਤੇ ਵਿਹਾਰ ਨੂੰ ਨਿਰਧਾਰਤ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਕਹਾਣੀਆਂ ਬੁਣਨ ਵਾਲੇ ਮਨ ਨੂੰ ਵੱਸ ਵਿੱਚ ਕਰਨ ਉੱਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਸਾਰੇ ਵਰਤਾਰਿਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀ ਇੱਛਾ-ਰਹਿਤ ਹੋ ਕੇ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਏਕਤਾ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਨੂੰ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ (6.18)। ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਅੱਗੇ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ‘‘ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹਵਾ ਰਹਿਤ ਸਥਾਨ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਦੀਵਾ ਚਲਾਏਮਾਨ ਨਹੀਂ ਹੰੁਦਾ, ਅਜਿਹੀ ਉਪਮਾ ਹੀ ਉਹ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਧਿਆਨ ਵਿੱਚ ਲੱਗੇ ਹੋਏ ਯੋਗੀ ਦੇ ਜਿੱਤੇ ਹੋਏ ਮਨ ਨੂੰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ’’ (6.19)। ਸ੍ਰੀ ਕਿ੍ਰਸ਼ਨ ਨੇ ਪਹਿਲਾਂ ਇਕ ਕੱਛੂ (2.58) ਅਤੇ ਨਦੀਆਂ ਅਤੇ ਸਮੁੰਦਰ (2.70) ਦਾ ਉਦਾਹਰਨ ਦਿੱਤਾ ਸੀ, ਜਿੱਥੇ ਨਦੀਆਂ ਇਕ ਵਾਰ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਵੇਸ਼ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਾਦ ਆਪਣੀ ਹੋਂਦ ਖੋ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇੰਨੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਵੇਸ਼ ਕਰਨ ਦੇ ਬਾਵਜ਼ੂਦ ਸਮੁੰਦਰ ਸ਼ਾਂਤ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇੱਛਾਵਾਂ ਅਪਣੀ ਹੋਂਦ ਖੋ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ ਜਦੋਂ ਯੋਗੀ ਦੇ ਸਮੁੰਦਰ ਰੂਪੀ ਮਨ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਵੇਸ਼ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ।

    4 min
  8. 6 DAYS AGO

    253. Confluence of Yogas

    Verses 18.41 to 18.57 of the Bhagavad Gita give contours about the confluence of karma yoga, gyana yoga and bhakti yoga. In the oft debated verse 18.41, Krishna says he created four varnas (social classifications) based on gunas springing from their nature. He further explained about different types of karmas performed by them in the day to day life (18.42-18.44). He reveals a secret that with devotion to swa-karma (one's deed) one attains siddhi (perfection or freedom) as this devotion towards karma is nothing but worshipping HIM (18.44-18.46). This clarifies that it doesn't matter what we do but what matters is the devotion with which we do our karmas or responsibilities. This is the path of attaining the eternal siddhi through devotion to karma which is nothing but the pinnacle of karma yoga. Krishna continues to guide those on the path of awareness or gyan yoga and declares that all the karmas are marred by blemishes (18.48). Hence, HE advises that we shouldn't abandon sahaja karma (natural deeds) arising out of swa-dharma (own nature)(18.47). He gives them the path of reaching Brahman (eternal) through 'freedom from karma' which can be attained by the buddhi (intellect) not being attached everywhere, conquering the self and freeing oneself from desires (18.49-18.50). When buddhi is purified, one is free from ahankaar and free from the notion of 'me and mine', one attains the eternal. Krishna indicates that freedom from ahankaar and being free from the notion of 'me and mine' lead to equanimity which is the foundation for bhakti yoga. Krishna says that by beholding all beings equally one attains parama bhakti (supreme devotion) which will enable an entry into that (HIM) (18.54-18.55). Such a devotee while performing any kind of karmas dedicates all such karmas to HIM (18.56).

    3 min

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Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.

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