Pratidin Ek Kavita

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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

  1. Kaise Bachaunga Apna Prem | Alok Azad

    16 HR. AGO

    Kaise Bachaunga Apna Prem | Alok Azad

    कैसे बचाऊँगा अपना प्रेम | आलोक आज़ाद  स्टील का दरवाजा गोलियों से छलनी हआ कराहता है और ठीक सामने, तुम चांदनी में नहाए, आँखों में आंसू लिए देखती हो हर रात एक अलविदा कहती है। हर दिन एक निरंतर परहेज में तब्दील हुआ जाता है क्या यह आखिरी बार होगा जब मैं तुम्हारे देह में लिपर्टी स्जिग्धता को महसूस कर रहा हूं और तुम्हारे स्पर्श की कस्तूरी में डूब रहा हूं देखो ना जिस शहर को हमने चुना था वो धीरे- धीरे बमबारी का विकृत कैनवास बन चुका है, जहाँ उम्मीद मोमबत्ती की तरह चमकती है और हमारी- तुम्हारी लड़ाई कहीं बारूदों के आसमान में गौरैया सी खो गई है, तुम्हारी गर्दन पर मेरे अधरों का चुंबन अपनी छाप छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहा है। मेरी उँगलियों पर तुम्हारे प्यार के निशान हैं लेकिन मेरी समूची देह सत्ता के लिए युद्ध का नक्शा घोषित की जा चुकी है। और इन सब के बीच तुम्हारी आँखें मेरी स्मृतियों का जंगल है। जिसमे मैं आज भी महए सा खिलने को मचलता हूँ, मैं घोर हताशा में तुम्हारे कांधे का तिल चूमना चाहता हूँ मैं अनदेखा कर देना चाहता हू पुलिस की सायरन को, हमारी तरफ आते कटीले तारों को, मैं जीना चाहता हू एक क्षणभगुर राहत, मैं तुम्हें छू कर एक उन्मादी, पागल- प्रेमी में बदल जाना चाहता हूँ मैं टाल देना चाहता हूँ दुनिया का अनकहा आतंक, मैं जानता हू आकाश धूसर हो रहा है, नदियां सूख रही हैं। शहरो के बढ़ते नाखून से, मेरे कानों में सैलाब की तरह पड़ते विदा- गीत मुझे हर क्षण ख़त्म कर रहे हैं पर फिर भी, मैं कबूल करता हूँ, प्रिये, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा हम मिलेंगे किसी दिन, जहां नदी का किनारा होगा जहां तुम अप्रैल की महकती धूप में, गुलमोहर सी मिलोगी जहाँ प्रेम की अफवाह, यूदध के सच से बहुत ताकतवर होगी

    3 min
  2. Kankreela Maidan | Kedarnath Aggarwal

    1 DAY AGO

    Kankreela Maidan | Kedarnath Aggarwal

    कंकरीला मैदान | केदारनाथ अग्रवाल  कंकरीला मैदान ज्ञान की तरह जठर-जड़ लंबा-चौड़ा, गत वैभव की विकल याद में- बड़ी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया! जहाँ-तहाँ कुछ- कुछ दूरी पर, उसके ऊपर, पतले से पतले डंठल के नाज़ुक बिरवे थर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुए हैं बेहद पीड़ित! हर बिरवे पर मुँदरी जैसा एक फूल है। अनुपम मनहर, हर ऐसी सुंदर मुँदरी को मीनों ने चंचल आँखों से, नीले सागर के रेशम के रश्मि -तार से, हर पत्ती पर बड़े चाव से बड़ी जतन से, अपने-अपने प्रेमी जन को देने की ख़ातिर काढ़ा था सदियों पहले । किन्तु नहीं वे प्रेमी आये, और मछलियाँ- सूख गयी हैं, कंकड़ हैं अब! आह! जहाँ मीनों का घर था वहाँ बड़ा वीरान हो गया।

    2 min
  3. Meera Majumdar Ka Kehna Hai | Kumar Vikal

    3 DAYS AGO

    Meera Majumdar Ka Kehna Hai | Kumar Vikal

    मीरा मजूमदार का कहना है | कुमार विकल सामने क्वार्टरों में जो एक बत्ती टिमटिमाती है वह मेरा घर है इस समय रात के बारह बज चुके हैं मैं मीरा मजूमदार के साथ मार्क्सवाद पर एक शराबी बहस करके लौटा हूँ और जहाँ से एक औरत के खाँसने की आवाज़ आ रही है वह मेरा घर है मीरा मजूमदार का कहना है कि इन्क़लाब के रास्ते पर एक बाधा मेरा घर है जिसमें खाँसती हुई एक बत्ती है काँपता हुआ एक डर है इन्क़लाब मीरा की सबसे बड़ी हसरत है लेकिन उसे अँधेरे क्वार्टरों खाँसती हुई बत्तियों से बहुत नफ़रत है वह ख़ुद खनकती हुई एक हँसी है जो रोशनी की एक नदी की तरह बहती है लेकिन अपने आपको गुरिल्ला नदी कहती है मीरा मजूमदार इन्क़लाबी दस्तावेज़ है पार्टी की मीटिंग का नया गोलमेज़ है मीरा मजूमदार एक क्रांतिकारी कविता है अँधेरे समय की सुलगती हुई सविता है उसकी हँसी में एक जनवादी आग है जिससे इन्क़लाबी अपनी सिगरेटें सुल्गाते हैं इन्क़लाब के रास्ते को रोशन बनाते हैं मैंने भी आज उसकी जनवादी आग से अधजले सिगरेट का एक टुकड़ा जलाया था और जैसे ही मैंने उसे उँगलियों में दबाया था झट से मुझे अपना क्वार्टर याद आया था मीरा मजूमदार तब— मुझको समझाती है. मेरे विचारों में बुनियादी भटकाव है कथनी और करनी का गहरा अलगाव है मेरी आँखों में जो एक बत्ती टिमटिमाती है मेरी क्रांति—दृष्टि को वह धुँधला बनाती है और जब भी मेरे सामने कोई ऐसी स्थिति आती है— एक तरफ़ क्रांति है और एक तरफ़ क्वार्टर है मेरी नज़र सहसा क्वार्टर की ओर जाती है

    3 min
  4. Desh Ho Tum | Arunabh Saurabh

    5 DAYS AGO

    Desh Ho Tum | Arunabh Saurabh

    देश हो तुम | अरुणाभ सौरभ  में तुम्हारी कोख से नहीं तुम्हारी देह के मैल से उत्पन्न हुआ हूँ भारतमाता विघ्नहरत्ता नहीं बना सकती माँ तुम पर इतनी शक्ति दो कि भय-भूख से मुत्ति का रास्ता खोज सकूँ बुद्ध-सी करुणा देकर संसार में अहिंसा - शांति-त्याग की स्थापना हो में तुम्हारा हनु पवन पुत्र मेरी भुजाओं को वज्र शक्ति से भर दो कि संभव रहे कुछ अमरत्व और पूजा नहीं हमें दे दो अनथक कर्म निर्भीक शक्ति से बोलने की स्वायत्ता सोचने की सच्चाई लिखने की सुनने की दुःखित-दुर्बल जन मुक्ति गुनने - बुनने की शक्ति गढ़ने-रचने - बढ़ने की सहने- कहने - सुनने की कर्मरत रहने की निर्दोष कोशिश करने की दमन मुक्त रहने की जमके जीने की नित सृजनरत रहने की शक्ति..शक्ति... तुम्हारी मिट्टी के कण- कण से बना तुमने मुझे नहलाया, सींचा-सँवारा तुम्हारी भाषा ने जगाकर मेरे भीतर सुप्त - ताप उसी पर चूल्हा जोड़कर पके भात को खाकर जवान हुआ हूँ में नीले आकाश को अपनी छत समझकर तिसपर धमाचौकड़ी मचाते हुए दुधियायी रोशनी से भरा चाँद है मेरे भीतर की रोशनी धरती से, जल से आग से, हवा से, आकाश से बना है, मेरा जीवन देश हो तुम मेरी सिहरन मेरी गुदगुदी आँसू- खून -भूख - प्यास सब।

    3 min

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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

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